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“साईंकोपैथ एक पहेली”- ‘हल ढूँढती क्रमिक विकास मनोविज्ञान ‘
अनायास एक दिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में घटित बहुचर्चित सामूहिक बलात्कार की घटना के परिपेक्ष्य में एक पत्रकार ने मुझसे सीधा सवाल किया की मनोचिकित्सक होने के नाते आप यह बतलाएं की बलात्कार करते वक़्त बलात्कारी के मन में क्या चल रहा होता है ?
प्रश्न बड़ा सीधा था ,परन्तु न केवल मैं अपितु मेरे साथ बैठे सहयोगी मनोचिकित्सक के लिए भी उत्तर उतना ही जटिल |अगले दिन मेज़ पर एक मनोवैज्ञानिक का लेख पड़ा देखा ,जिसका शीर्षक लगभग वही प्रश्न था ,एक कौंध या उत्कंठा के वशीभूत उस लेख की पड़ताल करता उत्तर की तलाश करने लगा |
मूलतः उस लेख में त्वरित आवेग ,सेक्सुअल डिसऑर्डर ,समाज का बदलता परिवेश ,मादक पदार्थों का बढता चलन आदि को उत्तरदायी बतलाया गया था परन्तु प्रश्न अभी भी जस का तस बना रहा तथा और भी पूरक प्रश्नो की स्वाभाविक प्रकिया ने इसे समस्या-पूर्ति सा जटिल बना दिया |
यह ठीक है की त्वरित आवेग, सेक्सुअल डिसऑर्डर ,समाज का बदलता परिवेश ,मादक पदार्थों का बढता चलन बलात्कार और अन्य जघन्य घटनाओं के लिए उत्तरदायी हो सकते हैं और भी कई कारक को इन घटनाओं से जोड़ कर देखा जा सकता है लेकिन मूल प्रश्न तो बलात्कार करते वक़्त बलात्कारी की मनोदशा का है |
प्रश्न और भी उभरते की ऊपर उल्लेखित मानसिक बीमारियाँ एक जनसँख्या समूह को ही अधिक क्यों प्रभावित करती हैं और एक पृथक जम्संख्या समूह को नहीं |
अब तक के शोध पत्रों में कुछ मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्ति की अनुवांशिक संरचना और परिवेश को इसका उत्तरदायी माना है परन्तु ‘नेचर बनाम नर्चर,’ अभी भी विवादित है ,सीधे शब्दों में अनुवांशिक संरचना या परिवेश इन दोनों में कौन व्यतित्व निर्माण में उत्तरदायी हैं समझना अभी भी कठिन कार्य है ,जुड़वाँ बच्चों पर दो विपरीत एवं सामान परिवेश में परिक्षण हो चुके है परन्तु न तो शारीरिक न ही मानसिक संरचना के विकास पर इनका सीधा असर साबित किया जा सका |
जहाँ तक सांस्कृतिक गिरावट या यूँ कहें की समाज का बदलता परिवेश इन मानसिक अपराधों के लिए उत्तरदायी ठहराए जा रहे हैं तो मेरे लिए यह तर्कसंगत नहीं हैं क्योंकि केवल एक जनसँख्या समूह के लिए ही तो सांस्कृतिक गिरावट हुई नहीं होगी और न ऐसी घटनाएँ पश्चिमी देशों में बहुतायत मिलती हैं जिन्हें हम उस गिरावट के लिए भरसक कोसते रहते हैं |
उस मूल प्रश्न का उत्तर ढूँढने के लिए मनोचिकित्सा विभाग की कई शाखाओं को जोड़कर देखना ही पड़ेगा ,किसी एक विभाग के अध्ययन से समस्या-पूर्ति संभव नहीं |
सबसे पहले अपराध विज्ञान का अध्ययन आवश्यक है | अपराध विज्ञान ऐसी विकृत मानसिकता के व्यतित्व को साईंकोपैथ या खंडित व्यतित्व के रूप में परिभाषित करती है यह ऐसी मानसिक अवस्था है जहाँ व्यक्ति स्वाभाविक रूप से अपराध की प्रति आकर्षित होता है तथा अपराध ही उसके जीवन का मकसद या प्रेरणा बन जाती है ,इस अवस्था का उम्र से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है |
सामान्यत: मनोचिकित्सक इस अवस्था को अन्य मानसिक विकारों से जोड़ कर देखते हैं या अन्य मानसिक विकारों की वृद्धि को ही विकृत मानसिकता के प्रगटीकरण के रूप में परिभाषित करते हैं ,यह तथ्य सही नहीं हो सकता क्योकि कई व्यक्तिओं में विकृत मानसिकता के लक्षण परिलक्षित होने के पूर्व किसी अन्य मानसिक विकार का कोई इतिहास सामने नहीं आया ,एक और बात तर्कसंगत है अभी तक इसका कोई कारगर इलाज सामने नहीं आया है अतः यह बात साबित होती है की अगर यह अवस्था दूसरे मानसिक विकारों का प्रागट्य होती तो उनके इलाज से इस विकृति का उपचार संभव होता परन्तु ऐसा नहीं है |
दूसरी बात विकृत मानसिकता का शारीरिक रुग्णता से सीधा सम्बन्ध नहीं है ,जहाँ इलेक्ट्रो एन्सेफैलो ग्राफ और अन्य दूसरे संसाधन अन्य मानसिक विकारों की कुछ न कुछ जानकारी देते हैं ,कम से कम उनके चिकित्सिये लक्षण तो अवश्य ही परिलक्षित होते हैं वहीँ विकृत मानसिकता में चिकित्सिये संसाधनो एवं लक्षणों का पूर्वानुमान संभव नहीं होता |
अब तक आपको इस विषय की जटिलता का अनुमान तो हो ही गया होगा |
यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहूँगा की आपराधिक मनोवृति एवं विकृत मानसिकता दो अलग अवस्थाएं हैं ,आपराधक मनोविज्ञान में वर्णित सेक्सुअल डिसऑर्डर, मादक पदार्थों आदि के दुरूपयोग का उनके लक्षणों के आधार पर वर्गीकरण एवं इलाज संभव है परन्तु अब तक के किसी शोध में विकृत मानसिकता के सफल इलाज की सम्भावना निकट भविष्य में परिलक्षित होती नहीं दिखती है |
इलाज का अर्थ यह नहीं की प्रशान्त्कों के माध्यम से व्यक्ति को आजीवन अर्ध निद्रा की अवस्था में रखा जाये ,जैसा की कई मनोचिकित्सक अब तक समझते रहे हैं और अनुपालन करते रहे हैं ,मेरा मानना है की विकृत मानसिक अवस्था की अब तक की अवधारणा को ठीक प्रकार से समझा ही नही गया और जो भी अवधारणाएं रही हैं वह त्रुटीपूर्ण रही हैं |
अब हम मनोविज्ञान की एक और शाखा जैव-सामाजिक मनोविज्ञान की चर्चा इसी परिपेक्ष्य में करना चाहेंगे |मनोविज्ञान की इस शाखा में यह अवधारणा दी गयी है की किसी भी रुग्णता के कई कारण हो सकते हैं और इसके उलट एक रुग्णता कई रोगों के जनक हो सकते हैं |यहाँ पर एक कारक को दूसरे कारक के लिए आश्रित माना गया है |
उदहारण के लिए किसी बच्चे की आरंभिक अवस्था में उसके प्रति किया गया व्यवहार उसके युवावस्था में उसके मानसिक व्यवहार को परिलक्षित करता है ,परन्तु यहाँ भी मेरी आपत्ति एक और उदहारण के द्वारा समझी जा सकती है ,अगर हम एक ऐसे जनसँख्या समूह की परिकल्पना करें जो एक ही विद्यालय के तथा एक ही श्रेणी के छात्र रहे हों सम्भावना यही प्रगट की जा सकती है युवावस्था में उनके मानसिक व्यव्हार एक ही हो ,परन्तु बहुधा यह संभव नहीं हो पाता है और एक ही व्यवहार और विचार में पले बच्च्चों की मानसिक विचार भिन्नता की प्रबलता स्वाभाविक रूप से अधिक होती है |
इसी अवधारणा के आलोक में अनुवांशिकी का अवलोकन किया गया है |अब तक दो जीन प्रारूपों का अध्ययन किया गया है – १)MAOA २)5-HT T|
अनुसंधानकर्ताओं का मानना है की जिन व्यक्तिओं के जीन प्रारूपों MAOA से रासायनिक घटकों का स्राव अधिक होता विकृत मानसिकता की सम्भावना उतनी ही क्षीण या न्यून होती है |
दूसरी तरफ 5-HT T के अधिक रासायनिक घटकों के स्राव से अवसाद की सम्भावना प्रबल होती है |
यहाँ कई मनोवैज्ञानिक यह प्रश्न उठा सकते हैं की मोनोअमीन ओक्सीडेज थेरेपी विकृत मानसिकता के इलाज के लिए कारगर होनी चाहिए और सदियों से इनका प्रयोग मनोचिकित्सा में हो रहा है फिर वह टूटी हुई कड़ी क्या है जिसने इस उलझन को और भी जटिल बना डाला है?
इसके उत्तर के लिए हमें महत्वपूर्ण परन्तु एक विस्मृत विभाग की और वापस आना होगा और नए विचारों और निष्पक्षता के साथ एक पुरानी अवधारना को शोध कार्य के रूप में नया आयाम देना होगा ,यह अवधारना क्रमिक विकास मनोविज्ञान की एक शाखा के रूप में प्रगट होती है |
क्रमिक विकास की मनोविज्ञान और मनोचिकित्सा के क्षेत्र में क्या भूमिका रही इस पर मनोवैज्ञानिकों में मतभेद आरंभिक काल से ही होती रही है | क्रमिक विकास की मनोविज्ञान को अगर परिभाषित किया जाये तो यह सम्पूर्ण जीवन काल में घटित जैविक संरचना ,विकास और परिवर्तनों के चक्र का वैज्ञानिक अध्ययन है |
इस परिभाषा को ठीक से अध्ययन करें तो यह मात्र मनुष्यों के जीवन काल तक ही सिमित नहीं है अपितु हरेक प्राणी के लिए यह सिद्धांत उतना ही प्रभावी है ,इस बात को बलपूर्वक कहना इसलिए आवश्यक है की मनोविज्ञान ने समय के साथ जैविक संरचना से मूलत: अन्य प्राणियों को मनुष्यों से पूरी तरह से अलग कर दिया ,जबकि पैव्लोव जैसे वज्ञानिकों ने ‘कंडिशनिंग’ तथा और भी कई शुरुआती परिक्षण जानवरों पर ही किये जो कालांतर में मनोविज्ञान के लिए मील का पत्थर साबित हुई |
आगे के मनोवैज्ञानिकों के लिए इस त्रुटी ने मानवों और अन्य जीवों की सहज वृति को पृथक विषयवस्तु के रूप में परिलक्षित करने की अवधारणा और पृथक सिद्धांतों की प्रतिपादन की मान्यता दी ,सीधे शब्दों में मनोविज्ञान ने दो जैव संरचना की स्थापना कर मनुष्यों के मनोविज्ञान और अन्य जीवों के मनोविज्ञान को बिलकुल अलग शास्त्रों के रूप में अध्ययन आरम्भ कर दिया ,यहाँ तक की मनोविज्ञान मात्र मनुष्यों के मनस के अध्ययन के विज्ञान के रूप में आरोपित हो चला ,जबकि चिकित्सा विज्ञान की अन्य शाखाओं ने मनुष्यों से पूर्व अपने सभी परिक्षण अन्य जीवों पर किये क्योकि सिद्धांत रूप में उच्चतर प्राणियों (मेरुदंड धारकों ) की शारीरिक कार्य प्रणाली लगभग सामान है |
इस सिद्धांत का लाभ चिकित्सा विज्ञान दिन प्रति दिन की सफलता और प्रयोगात्मक सिद्धांतों के कार्यात्मक रूपांतरण में दृष्टिगोचर होती है ,जबकि मनोविज्ञान अभी भी अपने मूल प्रश्नों से ही जूझने पर विवश है ,मानसिक बिमारियों की पुनरावृति और असफल इलाज इस त्रुटी का ज्वलंत उदाहरण है |
मनोविज्ञान के जनकों में से एक सिगमंड फ्रयाड के सिद्धांत की अलोकप्रियता और अनुपयोगिता का एक कारण मेरे समझ से यह रही की उन्होंने बचपन की अवस्था का आकलन तो किया पर केवल मनुष्यों तक ही उसे सीमित रखा जबकि अन्य उच्चतर प्राणियों में उनके साईको –सेक्सुअल सिद्धांत को दुहराया नहीं जा सका |
बाद के वर्षों में भी अधिकतर मनोचिकिसकों के अनुसंधानों में यह त्रुटी बनी रही और मनोविज्ञान निष्पक्ष न हो मनुष्यवादी होता चला गया |
अब हम यदि प्राथमिक रूप से आकलन करें और पूर्व में उल्लेखित उस पत्रकार के प्रश्न का उत्तर तलाश करने का प्रयास करें तो हमें प्राथमिक तौर पर एक नए सिद्धांत का प्रतिपादन करना होगा और मनोविज्ञान को समग्र दृष्टी से समूचे जैविक चक्र को अध्ययन में आधार बनाना ही पड़ेगा तभी उस यक्ष प्रश्न का उत्तर संभव है ,यहाँ तक की जितनी भी जटिलताएं हैं जो समाज के लिए अबूझ पहेली बन चुकी है यथा आतंकवाद ,सीरियल मर्डर ,दुष्कर्म आदि के पीछे की मानसिकता को समझा जा सकेगा |
अब यदि मैं अपने शोध पत्र की शुरुआत करूँ तो हमें मनुष्य की परिभाषा प्राप्त करनी होगी , मेरे विचार से मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसने सभ्यता या सभ्य दिखने की कला विकसित कर ली है और पीढ़ी दर पीढ़ी उस कला को नया आयाम दिया है |
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है की घिसी –पिटी परिभाषा मेरे लिए उपयुक्त नहीं है क्योकि मनुष्य के अतिरिक्त कई और प्राणी भी समाज में और समूह में रहना पसंद करते हैं ,चाहे वर्षा वनों में रहने वाले गोरिल्ला के समूह हों या सुदूर अंटार्कटिक के पेंगुइन के समूह ,सामाजिक संरचना के स्पष्ट साक्ष्य हमें प्राप्त हो चुके हैं अतः केवल मनुष्य को एक मात्र सामाजिक प्राणी मानना तर्कसंगत नहीं हो सकता |
मनोवैज्ञानिक हों या समाजशास्त्री दोनों ने ही मनुष्य की गलत परिभाषा दे डाली जो मेरे विचार से बुनियादी भूल है |
अब हम आगे के अध्ययन में मनोविज्ञान को केवल मानव मष्तिष्क की परिधि में न बांधकर समूचे प्राणी जगत पर आरोपित कर एक नया प्रभावी सिद्धांत को स्थापित करने की कोशिश करेंगे |
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